आज सुबह से कॉलोनी में बहुत चहल-पहल थी; घर-घर से देशी घी की पूड़ियों और हलवे की खुशबू आ रही थी ; नवरात्रि की अष्टमी जो थी। ग्यारह वर्ष की मेरी बेटी की दशहरे की छुट्टियाँ चल रही हैं,सो वह देर से सो कर उठी। उठते ही उसने बालकनी से नीचे झाँक कर देखा तो छोटी-छोटी बच्चियों का हूजूम, सजा-सँवरा, मिसेज़ शर्मा के घर की ओर बढ़ा जा रहा था। उसे जैसे कुछ याद आया। उसने मुझे आवाज़ दे कर बुलाया और पूँछा,“माँ ! क्या ये सभी कन्या-भोज के लिए जा रही हैं?’’ मैंने हाँ बोलते हुए उसकी आँखों में झाँक कर देखा। उनमें निराशा थी। उसने विचलित होते हुए पूँछा,‘‘मुझे क्यों नहीं बुलाया?’’ ठीक–ठाक उत्तर मेरे पास नहीं था,यदि आप के पास हो तो ज़रूर बताइएगा।
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मैं एक डॉक्टर हूँ और उम्र के साथ लड़कों और लड़कियों में आने वाले शारीरिक और मानसिक बदलावों के बारे में, मैंने बेटी को आठ वर्ष की उम्र से ही बता रखा है। मैंने उससे सांकेतिक भाषा में कहा, ‘‘शायद आंटी सोचती हैं, तुम ‘बड़ी’ हो गयी हो।’’ इस ‘बड़े’ होने का मतलब, वह बखूबी जानती है। अपने शरीर के प्रारम्भिक बदलावों से वह अनजान भी नहीं । वह रूठ कर बोली,‘‘लेकिन माँ ,अभी तो मैं….।’’ मैंने उसकी बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम सातवीं में पढ़ती हों और तुम्हारे साथ की आधी लड़कियाँ ‘बड़ी’ हो गयी हैं।’’
सच कहूँ ,तो उसे समझाने के बावज़ूद मैं भी आज तक यह समझ नहीं पाई कि इन बढ़ती उम्र की बच्चियों के साथ यह भेदभाव क्यों? उसकी ही उम्र में आज से पैंतीस साल पूर्व दिमाग में उपजा यह प्रश्न, आज भी अनुत्तरित है! मुझे याद आया,कैसे ऐसे प्रसंगों पर मैं भी अपनी माँ और बड़ी दीदी से जवाब माँगती थी।
यह सच है कि बदलाव आ रहे हैं; पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिस्थितियाँ बेहतर हो रही हैं; लेकिन आज जब हम इक्कीसवीं सदी तक आ गए हैं, तो कितनी और पीढ़ियाँ चाहिए इस दकियानूसी सोच को बदलने के लिए?हम नारी को तो देवी के रूप में पूजते हैं, फिर इन किशोरवय लड़कियों का देवीत्व कैसे कम हो जाता है? मुझे याद आया, बेटी के जन्म स्थान कर्नाटक में, कैसे इस ‘बड़े’होने को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। हाँ..वास्तव में यह उत्सव है। स्त्री के समग्र होने का उत्सव, उसके स्वस्थ होने की निशानी का उत्सव।
मैं तो बच्चियों को, बिना उम्र के भेद के, कन्या-भोज के लिए बुलाती हूँ: उनके बालमन को छूती हूँ, उससे सीखती हूँ। उन्हें यह कहने का अवसर बिल्कुल नहीं देती कि “मुझे क्यों नहीं बुलाया?”
शनि शिंगणापुर, हाजी आली की दरगाह और अब सबरीमाला में तो जीत चुके हम; पर इन किशोरियों के मन को आहत करती, इस भेदभाव से भरी परंपरा को कब तोड़ेंगे? कब जीतेंगे हम अपने ही घरों में?
वक्त है पुनरावलोकन का, नारी को नारी ही तो अभिशापित नहीं कर रही कहीं?
Author: Dr. Anupama Gupta
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अनुपमा गुप्ता पेशे से डॉक्टर हैं लेकिन बहुत कम उम्र से ही विभिन्न सामाजिक,भावनात्मक और समसामयिक विषयों पर लिख रही हैं।कविता,कहानी एवं लेख सभी विधाओं में इनकी सिद्धहस्तता है।विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित डॉ गुप्ता बच्चों और बड़ों से संबद्ध विषयों पर बराबर से कलम चलाती हैं।राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर की अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों में इनकी रचनाएँ देखी जा सकती हैं।
You can find her on twitter here: @anupamavik
Edited By: Aditi Gupta
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